Meetings: नई दिल्ली — देश की विधानसभाओं में घटती सक्रियता को लेकर लेजिस्लेटिव रिसर्च संस्था की वार्षिक रिपोर्ट 2024 ने गंभीर चिंता जताई है। रिपोर्ट के मुताबिक, बीते वर्ष में देश की अधिकांश विधानसभाओं ने औसतन केवल 20 दिन ही सत्र आयोजित किए, और महज 100 घंटे का औसतन कामकाज हुआ।
📊 कुछ राज्यों में हालात बेहतर, अधिकतर में गिरावट
रिपोर्ट के अनुसार, ओडिशा ने सबसे अधिक 42 दिन सत्र आयोजित कर पहला स्थान हासिल किया, इसके बाद पश्चिम बंगाल (36 दिन) और केरल (30 दिन) का स्थान रहा। वहीं दूसरी ओर नागालैंड (6 दिन), सिक्किम (8 दिन), पंजाब, उत्तराखंड, और अरुणाचल प्रदेश (सिर्फ 10 दिन) के सत्र बेहद कम समय के लिए आयोजित किए गए।
📉 हिंदी भाषी राज्यों में भी चिंताजनक स्थिति
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे देश के बड़े हिंदी भाषी राज्यों में भी विधानसभा की बैठकें मात्र 16 दिन ही चल सकीं। यह दर्शाता है कि इन राज्यों में जनप्रतिनिधियों को चर्चा और जवाबदेही के मौके सीमित रह गए हैं।
⚖️ कानून के पालन में भी औपचारिकता
भारतीय संविधान के अनुसार, हर छह महीने में कम से कम एक बार विधानसभा सत्र बुलाना अनिवार्य है। इस प्रावधान का पालन करते हुए 11 राज्यों ने केवल एक या दो दिन के सत्र बुलाकर औपचारिकता पूरी की। इससे लोकतांत्रिक विमर्श और जनहित के मुद्दों पर चर्चा की संभावना सीमित हो गई है।
📌 रुझान चिंताजनक, जवाबदेही पर असर
रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि विधानसभाओं की बैठकों में लगातार गिरावट का रुझान पिछले कुछ वर्षों से जारी है। विशेषज्ञों के अनुसार, इससे विधायकों को अपनी बात रखने का मंच सीमित होता जा रहा है और सरकारों की जवाबदेही भी कमजोर होती है।
🧾 विधानसभा अध्यक्ष की सीमित भूमिका
कई जानकारों का मानना है कि चूंकि विधानसभा अध्यक्षों के पास सरकार को सत्र बुलाने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं होता, इसलिए राज्य सरकारें जब चाहें, न्यूनतम सत्र बुलाकर काम चला लेती हैं।
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