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Political Review: आदिवासियों के जनसैलाब ने बढ़ाई राजनैतिक दलों की धड़कन

आदिवासियों के जनसैलाब ने

2029 के परिसीमन के बाद बदल सकता है जिले का परिदृश्य

Political Review: बैतूल। 1956 में मध्यप्रदेश के गठन के बाद से ही बैतूल जिला राजनैतिक रूप से दो दलों में बंटा रहा। जिसमें प्रमुख रूप से कांग्रेस का बोलबाला रहा और जिले के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में भी लंबे समय तक कांग्रेस को हर चुनाव में एकतरफा सफलता मिलती रही। लोकसभा हो या फिर विधानसभा हर चुनाव में आदिवासी वर्ग के मतदाताओं ने उम्मीदवारों का चेहरा ना देखते हुए कांग्रेस के चुनाव के चिन्ह पर अपनी मोहर लगाई। लेकिन 1990 के बाद जिले में स्थिति बदली और भाजपा ने भी इन क्षेत्रों में अपने झंडे गाडऩा शुरू किए। विशेषकर घोड़ाडोंगरी और भैंसदेही विधानसभा क्षेत्र में तो भाजपा एक तरफा जीत रही है। और जब से लोकसभा सीट आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हुई तब से कांग्रेस उम्मीदवार को जीत नसीब नहीं हुई। लेकिन अब आदिवासियों का मुखर आवाज बना जयस और अन्य नेताओं ने आदिवासियों को संगठित करना शुरू किया। जिसका ट्रेलर कल शहीद विष्णु सिंह उइके की प्रतिमा के स्थापना के एक वर्ष होने पर आयोजित विशाल महारैली में दिखाई दिया। बिना किसी बड़े नाम के इतना बड़ा आयोजन राजनैतिक हलको में आश्चर्य के साथ चर्चा का विषय बन गया है।


महारैली से भाजपा-कांग्रेस की पेशानी पर बल


बिना किसी बड़े नेतृत्व के हजारों की संख्या में आदिवासियों महिला-पुरूषों को पूरे जिले से बैतूल में एकत्रित करना यह बताता है कि आदिवासियों का नेतृत्व सक्षम हाथों में आ गया है। सेंट्रल विस्ट्रा के अनुसार मध्यप्रदेश में लोकसभा की सीट 29 से बढक़र 40 या 44 होती हैं तो बैतूल लोकसभा सीट 2029 में भी आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित रह सकती है। ऐसी स्थिति में लोकसभा सीट पर सिर्फ बैतूल जिले की विधानसभाएं रह जाएगी एवं हरदा जिले की हरदा, टिमरनी एवं खण्डवा जिले की हरसूद सीट बैतूल लोकसभा सीट से कट जाएगी। संभावना है कि 2029 में महिला परिसीमन भी लागू होगा। बैतूल विधानसभा में वर्तमान में 5 विधानसभा क्षेत्र हैं जो आबादी के पैनामे पर अगले चुनाव में सात से 8 सीट हो सकती हैं। इस स्थिति में भी राजनीति समीक्षकों का यह मानना है कि यदि 7 से 8 सीट बनती है तो आदिवासियों की वर्तमान में दो सीटों से बढक़र 3 से 4 सीट हो सकती हैं। और यदि इसी तरह से आदिवासी नेतृत्व सक्रिय रहा तो लोकसभा के साथ भविष्य में इन आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा-कांग्रेस को कई राजनैतिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।


जयस सरकार बैतूल का बढ़ता प्रभाव


आदिवासियों के लिए पिछले कई वर्षों से जयस संगठन पूरे प्रदेश में काम कर रहा है लेकिन विशेषकर बैतूल जिले में संगठन ने अपनी पहचान बनाई है और कई मौकों पर अपनी ताकत भी दिखाई है। जयस के प्रमुख नेता संदीप धुर्वे ने भैंसदेही विधानसभा क्षेत्र में जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए। तभी से आदिवासियों को संगठित करने में इस संगठन के अलावा अन्य संस्थाओं को भी सफलता प्राप्त हो रही है जो जिले में प्रभावी राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी बन सकता है।


विधानसभा में आदिवासी सीटों पर रही ऐसी स्थिति


1957 में पहली बार भैंसदेही सीट से कांग्रेस के आदिवासी उम्मीदवार सोमदत्त चुनाव जीते। लेकिन 1962 में भैंसदेही और घोड़ाडोंगरी विधानसभा सीट से क्रमश: दद्दू सिंह एवं जंगू सिंह जनसंघ की टिकट पर निर्वाचित हुए। यही स्थिति 1967 में भी बनी रही। 1972 आते-आते इन दोनों सीटों से कांग्रेस के काल्यासिंह चौहान और विश्राम सिंह मवासे जीते। 1977 में फिर स्थिति बदली और जनता पार्टी के पतिराम भैंसदेही से और जंगू सिंह घोड़ाडोंगरी से चुनाव जीते। 1980 एवं 1990 में फिर दोनों सीटें भाजपा के खाते में गई और भैंसदेही से केसरसिंह और घोड़ाडोंगरी से रामजीलाल जीते। 1985 में कांग्रेस के सतीष चौहान भैंसदेही से कांग्रेस की मीरा धुर्वे घोड़ाडोंगरी से जीती। 1993 में घोड़ाडोंगरी के प्रताप सिंह और भैंसदेही से गंजन सिंह कुमरे चुनाव जीते। 1998 में कांग्रेस से प्रताप सिंह से और भाजपा से महेंद्र सिंह घोड़ाडोंगरी और भैंसदेही से चुनाव जीते। 2003 एवं 2013 में फिर भाजपा के महेंद्र सिंह चौहान और सज्जन सिंह उइके दोनों चुनाव जीते। 2008 में भाजपा की गीता उइके घोड़ाडोंगरी से और कांग्रेस के धरमूसिंह भैंसदेही से जीते। 2018 में घोड़ाडोंगरी से कांग्रेस के ब्रम्हा भलावी एवं भैंसदेही से कांग्रेस के धरमूसिंह जीते। 2023 के चुनाव में फिर एक बार भाजपा के दोनों उम्मीदवार भैंसदेही से महेंद्र सिंह एवं घोड़ाडोंगरी से गंगा सज्जन सिंह उइके चुनाव जीती।


लोस चुनाव में आरक्षण के बाद भाजपा रही सफल


1952 में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए। तब से लगातार 5 चुनाव तक 1952, 1957 और 1962 में कांग्रेस के भीकूलाल चांडक और 1967 और 1971 में कांग्रेस के ही एनकेपी साल्वे चुनाव जीते। 1977 में जनता पार्टी के सुभाष आहूजा, 1980 में कांग्रेस के गुफराने आजम, 1984 एवं 1991 में कांग्रेस के असलम शेर खान, 1989 में भाजपा के आरिफ बेग, 1996, 1998, 1999, 2004 में भाजपा के विजय खण्डेलवाल, एवं 2008 के उपचुनाव में भाजपा के हेमंत खण्डेलवाल चुनाव जीते। इसके बाद आदिवासी वर्ग के लिए सीट आरक्षित हुई और आरक्षण के बाद हुए चारों चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। 2009 एवं 2014 में भाजपा की ज्योति धुर्वे एवं 2019 तथा 2024 में भाजपा के डीडी उइके चुनाव जीते। इस प्रकार आदिवासी वर्ग पर 1996 के बाद निरंतर भाजपा उम्मीदवार प्रभावी रहा।

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