मूर्ति खरीदने आए एक टूरिस्ट ने तोड़ा था अहंकार
Doctoral Honors: बीकानेर — अयोध्या के राम मंदिर में भगवान श्रीराम की प्रतिमा के शिल्पकार अरुण योगीराज को महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय (एमजीएसयू) द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। राजस्थान के राज्यपाल हरिभाऊ बागडे ने मंगलवार को आयोजित एक समारोह में उन्हें यह सम्मान प्रदान किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मनोज दीक्षित और अतिरिक्त रजिस्ट्रार डॉ. बिट्ठल बिस्सा भी उपस्थित थे। समारोह में विभिन्न संस्थाओं ने भी योगीराज का अभिनंदन किया। सम्मान प्राप्त करने के बाद अरुण योगीराज ने कहा, “रामलला की मूर्ति बनाना मेरे लिए प्रभु की कृपा थी। मैं केवल एक माध्यम था, मूर्ति अपने आप आकार लेती गई।अरुण योगीराज ने बताया कि मूर्ति निर्माण में लगभग ढाई महीने का समय लगा, लेकिन भगवान श्रीराम की कृपा से समय का पता ही नहीं चला। उन्होंने यह भी साझा किया कि मूर्ति निर्माण के दौरान उन्होंने रामलला से संवाद किया और हर सेंटीमीटर में यही सोचा कि देश को कुछ देना है। इस सम्मान के साथ ही अरुण योगीराज की कला को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है। वर्तमान में वे अमेरिका में साईं बाबा की 300 फीट ऊंची मूर्ति सहित कई परियोजनाओं पर कार्य कर रहे हैं। उनकी यह उपलब्धि न केवल उनके व्यक्तिगत समर्पण का प्रतीक है, बल्कि भारतीय मूर्तिकला की समृद्ध परंपरा को भी वैश्विक मंच पर स्थापित करती है। उन्होंने न सिर्फ एक महान मूर्तिकार के रूप में पहचान बनाई, बल्कि ये भी दिखाया कि कैसे पारंपरिक कला और परिवार की विरासत को आधुनिक दुनिया में नई पहचान दिलाई जा सकती है। उनके शब्दों से कुछ अहम बातें निकलती हैं:
1. पिता की चुपचाप प्रेरणा
अरुण के पिता ने भले ही सीधे उनकी तारीफ न की हो, लेकिन अंदर ही अंदर वो बेटे की प्रतिभा को पहचानते थे। कई बार असली सराहना छिपी होती है—जैसे उनके पिताजी ने अपने दोस्तों से कहा था कि “मेरा बेटा दुनिया का सबसे बड़ा मूर्तिकार बनेगा।” ये उस पिता का रूप है जो अपने बेटे को परिपक्व बनाना चाहता है।
2. विनम्रता और सीखने की भूख
टूरिस्ट द्वारा की गई आलोचना ने अरुण को जमीन पर ला खड़ा किया। जब हमें लगता है कि हम सबसे आगे हैं, तब ही कोई हमें सच्चाई का आइना दिखा देता है। और वही मोड़ हमारे जीवन का असली टर्निंग पॉइंट बनता है।
3. संस्कार और परंपरा का सम्मान
पांच पीढ़ियों से चली आ रही मूर्तिकला की परंपरा को उन्होंने सिर्फ निभाया नहीं, बल्कि उसमें आत्मा डाली। उन्होंने इसे एक मिशन की तरह लिया, खासकर रामलला की प्रतिमा बनाते समय, जब उन्होंने राम से “संवाद” किया।
4. देशभक्ति और समर्पण
यूरोप छोड़कर केदारनाथ में शंकराचार्य की मूर्ति बनाना एक ऐसा निर्णय था, जो दिखाता है कि अरुण के लिए पहचान से ज्यादा अहम था सेवा भाव और अपनी जड़ों से जुड़ाव।
5. दृष्टिकोण में बदलाव
कॉपी से क्रिएटिविटी तक की यात्रा अरुण ने खुद महसूस की। जब उन्होंने अपने पिता की बातें गंभीरता से लेना शुरू किया, तब उनका दृष्टिकोण बदला और वही बदलाव उन्हें भीड़ से अलग कर गया।
6. ग्लोबल पहचान
अब जब वे साईं बाबा की 300 फीट की मूर्ति बना रहे हैं या अमेरिका में फिर से काम कर रहे हैं, तो ये दिखाता है कि सच्ची लगन और कला की कोई सीमा नहीं होती। अगर चाहो तो मैं इस कहानी का एक भावनात्मक या प्रेरणात्मक निबंध या भाषण की तरह भी रूपांतर कर सकता हूँ—शायद किसी प्रतियोगिता या प्रस्तुतिकरण के लिए। बताओ, कैसा चाहिए?
साभार…
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